मनुष्य ही भाग्य विधाता है

July 1, 2019

 

 

         

 

संसार में अधिकांश लोग भाग्य, भाग्य का नारा लगाकर अकर्मण्य हो जाते हैं। घोर संसारी लोग तो ऐसा करते ही हैं साथ ही अध्यात्म पथ पर चलने की इच्छा रखने वाले लोग भी प्रायः यह कहते देखे जाते हैं कि – ‘क्या करें ? साधना करना हमारे भाग्य में ही नहीं है, गुरुधाम तक पहुँचना हमारे भाग्य में ही नहीं है, भाग्य में लिखा होगा तो साधना अपनेआप हो जाएगी’ इत्यादि।

इसी को भाग्य तुष्टि कहा जाता है –

 

एक है भाग्य तुष्टि गोविंद राधे,

भाग्य अपने आप साधन करा दे।

(राधा गोविंद गीत)

 

चार प्रकार की आध्यातिमक तुष्टियाँ बताई गई हैं जिनके कारण मनुष्य भगवत्कृपा का अधिकारी नहीं बन पाता। उन्हीं में से एक यह भाग्य तुष्टि है। अर्थात् भाग्य पर दोषारोपण करके स्वयं बरी हो जाना, अकर्मण्य हो जाना, यथोचित प्रयत्न न करना। लेकिन इस प्रकार के लोग आलसी होते हैं जो स्वयं कर्म करने से जी चुराते हैं।

अकर्मण्यता, कायरता का ही दूसरा रूप है  –

 

कादर मन कहुँ एक अधारा,

दैव दैव आलसी प्रकारा।

(रामचरितमानस)

 

पुरूषार्थी मनुष्य को कभी भाग्य इत्यादि पर विचार न करते हुए सदैव कर्मशील ही बने रहना चाहिए। क्योंकि यह भाग्य अपनेआप नहीं बन जाता, इसके जिम्मेदार तो हम स्वयं ही हैं। इस रहस्य को समझने के लिए ऐसे भाग्यवादियों को सर्वप्रथम इसकी परिभाषा पर बारम्बार विचार करना चाहिए कि भाग्य क्या तत्त्व है –

 

पूर्वजन्मकृतं कर्म तद्दैवमिति कथ्यते।

 

अर्थात् हमारे ही पूर्वजन्मों में किये गए कर्म यानि पुरुषार्थ अगले जन्म में भाग्य कहलाता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य के भूतकाल के कर्म भविष्य काल में भाग्य की संज्ञा पा जाते हैं।

 

तो जब हम भूतकाल में कर्म करने में स्वतंत्र थे तो इसका मतलब आज भी हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं। इसलिए भाग्य के नाम पर उच्छृंखलता करना नासमझी ही है। वेदशास्त्र या लोक भी यह नहीं कहता कि तुम्हें कुछ नहीं करना है, सबकुछ बस भाग्य के अनुसार होता जाएगा।

 

यह ठीक है कि हमारे पिछले जन्मों के कर्मों के अनुसार इस जन्म के लिए कुछ भाग्य निर्धारित हो चुका है जिसे भोगना ही होगा, उस भाग्य को कोई मिटा नहीं सकता –

 

अवश्यमेवभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्

(गीता)

 

लेकिन वह बहुत सीमित होता है, उसे मनुष्य को अपने ही कर्मों का परिणाम मानकर सहर्ष भोगते हुए क्रियमाण कर्म पर ही ध्यान केंद्रित रखना चाहिए।

 

कर्मणां संचितादीनां जीवोधीनस्तथापि हि

स्वतंत्र: क्रियमाणे वै कृतो भगवता विदा

(प्रियादास)

 

मनुष्य संचित कर्म (पूर्व जन्मों में किये गए अनंत कर्म) और प्रारब्ध कर्म (संचित कर्मों में से वर्तमान जीवन में भुगवाने के लिए निर्धारित किये गए कुछ कर्म, इसे ही भाग्य कहते हैं) के आधीन है लेकिन क्रियमाण कर्म (वर्तमान जन्म के कर्म जिसे करने में प्रत्येक मनुष्य समर्थ है) करने में स्वतंत्र है।

 

चौरासी लाख प्रकार की योनियों में से केवल मनुष्य को ही पुरुषार्थ करने की स्वतंत्रता दी गई है। ऐसा सौभाग्यशाली मनुष्य अपनी इस शक्ति का प्रयोग करके कर्म में प्रवृत्त न हो, पुरुषार्थ न करे और भाग्य को दोष दे तो उससे बड़ा दुर्भाग्यशाली भी कोई नहीं हो सकता। इसलिए ऐसे कापुरुषों को डाँटते हुए कहा गया है –

 

उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीर्दैवेन

देयमिति का पुरुषा वदन्ति।

दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या

यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोत्र दोषः ।

 

अस्तु तात्पर्य यही है कि पुरूषार्थी व्यक्ति को ही सफलता प्राप्त हो सकती है, भाग्य के भरोसे बैठने वालों को नहीं। जैसे पूर्व जन्मों  में पुरुषार्थ करके हमने अपना अच्छा या बुरा भाग्य बना लिया है इसी प्रकार वर्तमान जन्म में कर्म करके भी हम अपना स्वर्णिम भाग्य बना सकते हैं, क्योंकि भाग्य विधाता कोई और नहीं मनुष्य स्वयं है।

 

#सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)