राधारानी का दरबार सबसे ऊँचा क्यों ?
सर्वोच्च रस की प्राप्ति के लिए माधुर्य भाव-युक्त भक्ति में महारसिकों का अधिक झुकाव श्री राधारानी के प्रति होता है। हमारे शास्त्रों में भी श्री राधारानी के प्रति अधिक अनुराग करने के कथन कई स्थानों पर मिलते हैं –
कृष्णादप्यधिकं प्रेम राधिकायां प्रकुर्वतीम्
(पद्म पुराण)
अर्थात् श्री कृष्ण से भी अधिक प्रेम राधा में होना चाहिए।
आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात् कृष्णं परात्परम्
स एव पण्डितो योगी गोलोकं याति लीलया
(ब्रह्म वैवर्त पुराण)
अर्थात् जो पहले राधा का नाम लेता है बाद में श्री कृष्ण का नाम लेता है वह समझदार है, वह गोलोक जाता है। यही भाव हमारे परम पूज्य गुरुवर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित संकीर्तनों में भी दर्शाया गया है –
कृष्ण कहु पाछे, प्रथम कहु राधा
हमारो धन राधा राधा राधा
यहाँ तक कि स्वयं पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रह्म श्री कृष्ण ने भी राधा के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा –
गेहे राधा वने राधा राधिका भोजने गतौ
रात्रौ राधा दिवा राधा राधैवाराध्यते मया
जिव्हा राधा श्रुतौ राधा नेत्रे राधा हृदिस्मृता
सर्वांगे व्यापिनी राधा राधैवाराध्यते मया
(ब्रह्मांड पुराण)
वे कहते हैं घर में भी मुझे राधा राधा का अनुभव होता है। कुछ खाता-पीता हूँ, कहीं चलता हूँ, दिन हो, रात हो, सदा राधा राधा ही मेरे रोम रोम में व्याप्त हैं। मेरी जिव्हा पर राधा, मेरे कानों में भी श्री राधा राधा की ही आवाज़ आती रहती है। मेरी आँख जहाँ उठती है वहीं राधा के दर्शन होते हैं। मेरे हृदय में भी राधा हैं। मैं राधा की ही भक्ति करता हूँ।
पुनः ठाकुर जी कहते हैं –
राधापुरः पश्चिमतश्चराधा
राधाधिसव्यमथ दक्षिणतश्च राधा
राधा खलु क्षितितले गगने च राधा
राधामयी किल वभूव कुतस्त्रिलोकी
अर्थात् मेरे आगे भी राधा, पीछे भी राधा, उत्तर भी राधा, दक्षिण भी राधा, पूर्व भी राधा, पश्चिम भी राधा। पृथ्वी की ओर देखता हूँ वहाँ भी राधा, गगन में भी राधा, सारा ब्रह्मांड मेरे लिए राधामय है।
तो ऐसा क्या कारण है कि शास्त्रों में भी और महारसिकों ने भी श्री राधा के प्रति अधिक प्रेम प्रकट किया है, श्यामसुंदर भी श्री राधा की भक्ति करते हुए सदा राधारानी को ही अपनी स्वामिनी मानते हैं, अनेक प्रकार की सेवाओं द्वारा सदा श्री राधा को रिझाने का प्रयत्न करते हैं। इसी रहस्य को स्पष्ट रूप से समझना है –
किशोरी जी में एक गुण है सबसे प्रमुख – ‘संतताश्रव केशवा’। अर्थात् जिसके आधीन केशव रहते हैं।
संतताश्रव केशवा का गोविंद राधे,
भाव कृष्ण स्वामिनी हैं राधा बता दे।
(राधा गोविंद गीत)
और इसका कारण है प्रेम की अधिकता। हम अभी प्रारंभिक अवस्था में जो साधना भक्ति करते हैं इसके आगे है भाव भक्ति। फिर प्रेमा भक्ति, स्नेह भक्ति, मान भक्ति, प्रणय भक्ति, राग भक्ति, अनुराग भक्ति, भावावेश भक्ति और महाभाव भक्ति। तो महाभाव भक्ति तक गोपियाँ भी पहुँची, श्री कृष्ण भी, राधा भी। इसी महाभाव भक्ति के दो स्तर होते हैं – मादन और मोदन। ये दोनों संयोग के हैं। मोदन ही वियोग में मोहन कहलाता है और उसी का एक स्वरूप बनता है दिव्योन्माद। तो यह मोदन रस ठाकुर जी को भी मिलता है लेकिन महाभाव की मादन अवस्था केवल किशोरी जी की है, वहाँ श्री कृष्ण भी नहीं पहुँच सके –
सर्वभावोद्गमोल्लासी मादनोऽयं परात्पर:
राजते ह्लादिनी सारो राधायामेव य: सदा।
(उज्ज्वल नीलमणि)
यह मादनाख्य महाभाव केवल राधा में है। इसी मादन रस के कारण ही ठाकुर जी भी किशोरी जी के दास हो जाते हैं।
प्यारी मादन रस वारी, जेहि रस वश बनवारी,
जेहि मादन रस हित पिय तरसत,
सोई मम स्वामिनी श्री राधे।
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
तो राधारानी ही वो योगमाया शक्ति हैं जिस शक्ति के आधार पर श्री कृष्ण कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम् समर्थ कहलाते हैं। पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रह्म श्री कृष्ण इसी शक्ति के आधार पर साकार बने, सृष्टि इत्यादि समस्त कार्य करते हैं और सदा आनंदमय रहते हैं। इसलिए जैसे सुगंध के बिना कपूर का अस्तित्व नहीं ऐसे ही राधा रूपी शक्ति के बिना हमारे मदन गोपाल ठन ठन पाल कहलायेंगे। और साधारण दृष्टि से भी इस बात को समझा जा सकता है। राधारानी मातृ स्वरूपा हैं और माँ का स्थान संसार में भी पिता से सौ गुना ऊँचा ही माना गया है।
श्री कृष्णो जगतां तातो जगन्माता तु राधिका
पितु: शतगुणा माता पूज्या वंद्या गरीयसी
क्योंकि माँ का हृदय पिता से अधिक कोमल होता है इसीलिए किशोरी जी अवढर दानी कहलाती हैं। उनकी कृपा का दरबार अद्भुत है। सबसे ऊँचा है। ठाकुर जी भी उनसे कृपा प्राप्त करके ही जीवों पर कृपा बरसाते हैं इसलिए श्री महाराज जी कहते हैं –
तेरी कृपा चह बनवारी, तेरी कृपा की है बलिहारी
तेरी कृपा ते ही बनवारी, करें जीवों पर कृपा प्यारी
तेरी कृपा पाके पिय प्यारी, बनि गए हैं ‘कृपालु‘ प्यारी।
इसलिए यद्यपि सिद्धांततः दोनों में कोई भेद नहीं है। श्रीराधाकृष्ण दोनों एक ही हैं। उनमें भेद बुद्धि रखने वाले जीव कालसूत्र नरक को प्राप्त होते हैं –
आवयोर्भेदबुद्धिम् वै य: करोति नराधम:
तस्य वास: कालसूत्रे यावच्चन्द्रदिवाकरौ
(ब्रह्म वैवर्त पुराण)
केवल लीला व रस की दृष्टि से ही किशोरी जी का स्थान ठाकुर जी से ऊँचा है। वे समस्त अवतारों के अवतारी श्री कृष्ण की भी स्वामिनी हैं।
#सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)