मन : हमारा शत्रु भी मित्र भी
हमारे शास्त्रों ,में मनुष्य की एकादश इंद्रियाँ बताई गई हैं। इनमें से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं – आँख, नाक, कान, त्वचा, रसना एवं पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं – हाथ, पैर, वाणी, मल विसर्जन और प्रजनन की इन्द्रियाँ। ग्यारहवीं इन्द्रिय है, ‘मन‘। इसी मन की अलग-अलग अवस्थाओं को ही बुद्धि, चित्त, अहंकार भी कहा गया है और इन्हीं सबको मिलाकर अंतःकरण भी कहा जाता है। ये मन एक ऐसा उपकरण है जो एक क्षण को भी अकर्मा नहीं रह सकता, चुप नहीं रह सकता।
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् (गीता : 3-5)
और मन का एक ही कार्य है, चिंतन करना। हमारे इसी चिंतन को, प्रत्येक क्षण के विचारों को ही भगवान नोट करते हैं और उसी कर्म के अनुसार हमें फल प्रदान करते हैं। इसलिए मन को ही हमारे शास्त्रों में प्रमुख कर्ता माना गया है। बहिरंग इन्द्रियों का कोई कर्म भगवान नोट नहीं करते, वो केवल हमारी मंशा नोट करते हैं। इसलिए मन को ही बंधन और मोक्ष का कारण बताया गया है –
मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः (ब्रह्मबिन्दूपनिषद्-2)
यही मन अगर संसारी विषयों में आसक्त हो जाए तो बंधन का हेतु होता है और इसी मन से मनुष्य भगवान से प्रेम कर ले, मन को उनमें अनुरक्त कर दे तो मुक्त हो जाए, जन्म-मरण के चक्र से छूट जाए।
गुणेषु सक्तं बंधाय रंत वा पुंसि मुक्तये (भागवत : 3-25-15)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इसी बात को अपने संकीर्तन में इन पंक्तियों में दोहराया है-
जग अनुरागी जो मना, वो दे बिनु मौत मरना।
हरि अनुरागी जो मना, वो तो मिलवा दे सजना।
इसका तात्पर्य यही है कि मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और यही सबसे बड़ा मित्र भी। अगर ये मनुष्य को सांसारिक नश्वर सुखों का प्रलोभन देकर जगत में आसक्त कर देता है तो इससे बड़ा कोई शत्रु नहीं हो सकता। इसी की लापरवाही के कारण ही हम अनादिकाल से इस संसार चक्र में मोहित होकर निरन्तर माया के थपेड़े सहते हुए असह्य दुःख भोग रहे हैं। इस प्रकार का अहित कोई शत्रु ही कर सकता है। किन्तु यही मन अगर वेद-शास्त्र की वाणी पर, गुरु वाणी पर विश्वास करके मनुष्य को आनंदसिंधु भगवान की ओर ले जाता है, शाश्वत आनन्द दिलाकर सदा सदा के लिए मालामाल कर देता है तो इससे बढ़कर कोई परम मित्र नहीं हो सकता। तब ये मनुष्य का सच्चा हितैषी, सच्चा सखा कहलाता है।
इसीलिए समस्त ग्रन्थों ने, संतों ने मन को ही संबोधित करते हुए इसे ईश्वर की ओर चलने के लिए प्रेरित किया है। हमारे परम पूज्य गुरुवर अपने संकीर्तन की निम्न पक्तियों में इसी मन को समझाते हुए कहते हैं –
तूने ही बिगारा है मना, तू ही अब बिगरी बना।
तेरे हाथ सब है मना, हरि गुरु गहु शरना।
अर्थात् ऐ मन ! तूने ही मनमानी करके मेरे अनंतानंत जन्म बिगाड़ दिए हैं और अब मेरी बिगड़ी बात बनाने में (मायानिवृत्ति कराने में) भी केवल तू ही समर्थ है, सब कुछ तेरे ही हाथ में है। इसलिए तू अब मेरी बात मान ले और केवल हरि गुरु की ही शरणागति कर ले।
इस रहस्य को समझकर कल्याण पथ के पथिकों को सदैव अपने मन को प्रेमपूर्वक समझाकर, पुचकारकर अथवा हठपूर्वक भगवान में ही लगाने का निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए। मन के आधीन होकर उसे मनमानी करने के लिए स्वतंत्र नहीं छोड़ना चाहिए, इससे वह और उच्छृंखल होता चला जाता है।
#सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)