मान अपमान को छोड़ना होगा
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रचारिका सुश्री श्रीधरी दीदी द्वारा विशेष लेख !
हमारे परम-चरम लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति के लिए अनंत जन्मों से प्रयत्नशील रहने पर भी हम लक्ष्य से वंचित रहे क्योंकि प्रयत्न के साथ जिन चीजों का त्याग करना था वो हमने नहीं किया। जिस मान-अपमान की बीमारी को छोड़ना था उसे मन से छोड़ न सके , उसी झगड़े में सदा उलझे रहे । कभी सम्मान मिलने पर अहंकार युक्त हो गए तो कभी अपमान होने पर दुखी या क्रोधित होते रहे। जिस मन में मनमोहन को बिठाना था वहाँ मान-अपमान को भरते रहे इसलिए लक्ष्य तक नहीं पहुँच सके।
ईश्वर प्राप्ति में बहुत सी चीजें बाधक हैं उनमें सबसे अधिक बाधक चीजें हैं मान और अपमान। हमें इन दोनों का ही त्याग करना होगा । त्याग का अभिप्राय है मन से इनको नहीं पकड़ना है। मान हम इसीलिए चाहते हैं क्योंकि दूसरों का अपमान चाहते हैं । अगर हम अपने मान की चाह मिटा दें तो दूसरों के अपमान की बीमारी ही पैदा नहीं होगी ।
इन दोनों हानिकारक चीजों से बचने की एक ही तरकीब है जो हम दूसरों के लिए चाहते हैं वो अपमान अपने लिए चाहें और अपने लिए जो मान चाहते हैं वो दूसरों के लिए चाहें।बस फिर लक्ष्य प्राप्ति में कोई देर नहीं हो सकती ।
‘ सबहिं मानप्रद आपु अमानी ‘
तुलसीदास जी ने संतों का जो गुण बताया है वही हमें धारण करना होगा । हम सबको सम्मान दें किंतु अपने लिए कभी मान न चाहें ।
सब को दूँ सम्मान गोविंद राधे ।
आपु मान चाहूँ नहिं ऐसा बना दे ।। ( जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज )
अपमान न चाहने का अभिप्राय है अपमान मिलने पर हम उसे फील न करें तो अशांत नहीं होंगें और मान मिलने पर उसका अहंकार न करें।
कोउ करे निन्दन कोउ अभिनंदन जेहि जो भावे सो करे ( श्री महाराज जी )
हमें तो दोनों अवस्थाओं में निश्चिंत रहना है । न प्रशंसा में प्रसन्न होना है न निंदा में दुखी होना है –
स्तुति सुनि फूलूँ नहिं गोविंद राधे ।
निंदा सुनि पिचकूँ ना ऐसा बना दे।। ( राधा गोविंद गीत )
अर्थात् ‘निंदा अस्तुति उभय सम’ इस स्थिति पर पहुँचना होगा क्योंकि वस्तुतः हम किसी भी प्रकार मान के योग्य नहीं हैं जब तक भगवत्प्राप्ति न कर लें।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज इसी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं –
मान मन ! छाँड़ मान अपमान
जब लौं मिल्यो न तोहिं प्राणधन, सुंदर श्याम सुजान ।
तब लौं कहा मान निज मानत, मायाधीन अयान ।।
अर्थात् अरे मन ! तू मेरी बात मान ले ।मान अपमान के झगड़े में न पड़ । जरा सोच तो , जब तक तुझे प्रियतम श्यामसुंदर नहीं मिले , तब तक तू मायाधीन ही रहेगा और मायाधीन होने के कारण समस्त दोषों , समस्त विकारों से युक्त रहेगा तो फिर किस प्रकार स्वयं को मान के योग्य मानता है । मायाधीन होने के कारण हम हर प्रकार से निंदनीय हैं इसलिए हमें कोई दोषी बताता है, हमारा अपमान करता है तो समझो वो हमारा हितैषी है इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा –
‘निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय’
मान-अपमान के गर्त से अगर हम नहीं निकलेंगे तो हमारा जो भविष्य है परलोक वो बिगड़ जाएगा और वर्तमान में भी हम परेशान रहेंगे । वर्तमान भी दुःखमय और भविष्य भी हानिकारक। इसलिए हमें इसे छोड़कर तृण से बढ़कर दीन बनकर भगवान का ध्यान करते हुए उनसे मिलने के लिए आँसू बहाने होंगे।
कह ‘कृपालु’ बनि दीन तृणहूँ ते, रुदन करहु धरि ध्यान ।
जब श्यामसुंदर स्वयं आकर अपने पीताम्बर से हमारे आंसू पोंछकर हमें सम्मानित करेंगे तब वो दिन हमारे लिए सम्मान का दिन होगा । उसी दिन इस मानव देह का मूल्य चुक जाएगा ।
उससे पूर्व केवल स्वयं में दोष देखने का अभ्यास करके दीनता लानी है –
बुरा जो खोजन मैं चला बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न होय ।। ( कबीरदास जी )
भगवत्प्राप्ति से पहले हम वंदनीय नहीं हैं निंदनीय भले ही हैं । इसलिए मान – अपमान से ऊपर उठकर हमें अपने अन्तःकरण को गुरु निर्दिष्ट साधना भक्ति द्वारा शुद्ध करने का निरंतर अभ्यास करना है –
‘ तेरे भावे जो करे भलो बुरो संसार ।
नारायण तू बैठ कर अपनो भवन बुहार ।। ‘
सुश्री श्रीधरी दीदी प्रचारिका जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज