श्री राधा कौन हैं ?
पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रह्म श्री कृष्ण की उपासना करने वाले कई लोग भी राधा तत्त्व के विषय में कुछ नहीं जानते। वे अक्सर कहते हैं कि वेदों के अनुसार तो जिससे परे कुछ न हो वह परात्पर तत्त्व श्री कृष्ण ही हैं –
योऽसौ परब्रह्म गोपाल:
(गोपालतापनीयोपनिषद्)
मत्त: परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय
(गीता)
न परं पुण्डरीकाक्षात्
(महाभारत)
तो फिर ये राधा तत्त्व क्या है? यहाँ तक कि वेद में भी प्रश्न किया गया –
ब्रह्मवादिनो वदन्ति कस्माद् राधामुपासते
अर्थात् बड़े ब्रह्मज्ञ महापुरुषों ने एक सभा की। उसमें एक प्रश्न रखा कि श्री कृष्ण ब्रह्म हैं तो राधा की उपासना क्यों करते हैं लोग? ये कौन हैं? तो वेद ने ही उत्तर दिया –
यस्या रेणुम् पादयोर्विश्व भर्ता
यस्या अंके विलुण्ठन् कृष्ण देवो
गोलोकाख्यां नैव सस्मार तां
राधिकां शक्तिधात्री नमाम:
(राधिकोपनिषद्)
अर्थात् श्री कृष्ण जिनकी उपासना करते हैं, भक्ति करते हैं, जिनके चरण की धूलि अपने मस्तक पर धारण करते हैं, जिनके श्री अंक में लोटते हुए अपने गोलोक को भूल जाते हैं, वे शक्तिधात्री श्री राधा हैं। पुनः वेद में और स्पष्ट किया गया –
ये यं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहे नैक: क्रीडनार्थं द्विधाभूत्
(राधातापनीयोपनिषद्)
अर्थात् जो राधा हैं वही श्री कृष्ण हैं। केवल लीला करने के लिए, भक्तों को सुख प्रदान करने के लिए एक ही पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रह्म ने अपने दो रूप बना लिए। इनका देह भी एक है।
जैसे श्री कृष्ण ब्रह्म हैं, ऐसे ही श्री राधा ब्रह्म हैं। ये दो तत्त्व नहीं हैं।
राधाकृष्णयोरेकासनं एका बुद्धि:
एकं मन: एकं ज्ञानं एक आत्मा
एकं पदं एका आकृति: ।
अतो द्वयोर्न भेद: कालमायागुणातीत्वात्
(राधिकोपनिषद्)
यानि राधा कृष्ण इन दोनों की बुद्धि, मन, आत्मा, आकृति सब कुछ एक है। फिर कहा –
स्वयमेव राधिकारूपं विधाय समाराधन तत्परो ऽभूत्
(शतपथ ब्राह्मण–वेद)
स्वयं श्री कृष्ण राधा नायिका का रूप बनाकर के अपनी ही उपासना करने लगे।
कृष्णेन आराध्यते इति राधा
(वेद)
श्री कृष्ण जिसकी आराधना करें वह राधा तत्त्व है। यानि अपनी आराधना करते हैं। जैसे आत्माराम संत अपनी आत्मा में रमण करते हैं इसी प्रकार श्री कृष्ण अपने में रमण करते हैं। उनका अपना ही स्वरूप हैं श्री राधा। इसलिए जो भी श्री राधा-कृष्ण में भेद बुद्धि रखते हैं ,उन्हें अलग-अलग अथवा छोटा-बड़ा मानते हैं वे सभी नामापराध के भागी होते हैं, जो अक्षम्य अपराध है। लेकिन फिर भी एक तत्त्व होते हुए भी लीला की दृष्टि से श्री राधारानी का स्थान ऊँचा माना गया है क्योंकि ब्रह्म श्री कृष्ण स्वयं अपनी ह्लादिनीशक्ति महाभावस्वरूपिणी श्री राधा की चाकरी किया करते हैं। इसलिए एक रसिक ने कहा –
दोनों एक रूप, वेद भाखत न भेद कछु,
वंदऊ दोनों को भव बंधन हरत है,
दोइनि की प्रीति एक, रीत एक नीति एक,
द्वैत भाव उठत ही पातक परत है,
अधम अधीन दीन तारिबे में दोनों एक,
तदपि विचार करि बिंदु यूं कहत है,
कृष्ण के रटै आठ याम में तरत नर
राधे के रटै ते आधे पल में तरत है।
अर्थात् श्री राधा की उपासना करने वाले जीवों से श्री कृष्ण और शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं।
किशोरी जी की कृपा का दरबार अद्भुत है। स्वयं श्यामसुंदर भी सदा राधारानी के कृपाकटाक्ष के अभिलाषी बने रहते हैं। उन्हीं के कृपा-प्रसाद से ही वे रसिक शिरोमणि बन सके, परम रसमयी युगल लीलाओं द्वारा भक्तों के मध्य रस वृष्टि कर सके इसीलिए तो अतिशय प्रेमपूर्वक व्यंग्य करते हुए एक भक्त ने यहाँ तक कहा –
सूकर ह्वै कब रास रच्यो,
अरु बामन ह्वै कब गोपी नचाई।
मीन ह्वै कौन की चीर हरे,
कछुआ बनि के कब बीन बजाई।
ह्वै नरसिंह कहो हरि जू,
तुम कहाँ माखन और दधि चुराई।
वृषभानु ललि प्रगटी जब ते,
तब ते तुम केलि कलानिधि पाई।
श्री राधेरानी ने तोहे रसिक बनायो,
नहीं तो ग्वालिया गंवार हते तू कन्हाई।
अस्तु, तात्पर्य यही है कि श्री राधा कृष्ण दोनों एक ही हैं, केवल लीला जगत में रस की दृष्टि से श्री राधा का स्थान श्री कृष्ण से भी ऊँचा माना गया है।
#सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)