किस बात का अहंकार ?
मनुष्य की सारी आयु सारहीन चीजों के अहंकार में ही व्यतीत हो जाती है और इसी निरर्थक अहंकार के कारण ही अनादिकाल से आजतक हम न किसी भगवान के अवतार के आगे शरणागत हो सके न महापुरुषों के। अनंत जन्मों में अनंत बार भगवान ने स्वयं भी अवतार लेकर एवं अनेकानेक महापुरुषों को भेजकर हमारे कल्याण के लिए प्रयत्न किया लेकिन इसी मिथ्या अहंकार वश हमने सबको ठुकरा दिया और परिणामस्वरूप आज भी उसी अहंकार के नशे में डूबे हुए माया के थपेड़े सहते जा रहे हैं। इतने मूर्ख होने के बाद भी हम तुर्रा यह रखते हैं कि हम भी कुछ हैं। हमारी दुर्बुद्धि का यह हाल है कि निरंतर अपना पतन करते हुए काल, कर्म, गुण, स्वभाव इत्यादि के आधीन होकर निरंतर दुःख भोगते हुए भी हम न तो इस अहंकार का त्याग कर पाते हैं और न महापुरुषों के बताने पर स्वयं को अहंकारी मान पाते हैं।
केवल स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान मानकर अब भी धोखे में जिये जा रहे हैं। लेकिन अगर हमें अपने कल्याण की ज़रा भी चिंता है तो हमें बार-बार इस चीज़ पर विचार करना चाहिए कि आखिर हमें किस बात का अहंकार है ? क्या हमारे पास अहंकार के योग्य वाकई कुछ सामान है ?
अगर हम गंभीरतापूर्वक विचार करें, सत्य को हृदय से स्वीकार करें तो यही पायेंगे कि हमारे पास अहंकार करने के लायक कुछ भी नहीं है। तन, यौवन, धन जिन-जिन चीजों का हम अहंकार करते हैं ये तो सब चार दिन के हैं। इसीलिए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज स्वरचित ग्रन्थ राधा गोविंद गीत में कहते हैं :
बड़े बड़े आये गये गोविंद राधे,
तन धन आदि अभिमान मिटा दे।
अरे इस नश्वर जगत में बड़े बड़े अहंकारी आये लेकिन तन, धन इत्यादि सबकुछ छोड़कर काल के गाल में समा गए फ़िर क्यों अहंकार करते हो ? तुम किस खेत की मूली हो ? तुम्हारे पास है ही क्या ? तुम न तो धन में कुबेर हो, न मान में गणेश के समान हो, न वैभव में इंद्र की बराबरी कर सकते हो, न कामदेव सरीखा रूप है, न सरस्वती बृहस्पति जैसी बुद्धि है, न काल के समान बल है, न ब्रह्मा जैसी प्रभुता है फिर कैसे अभिमान ? अरे इस मृत्यु लोक में ही तुमसे आगे एक से बढ़कर एक कई लोग हैं जिनको देखकर तुम पिचक जाते हो फिर इन तुच्छ चीज़ों के गुमान में क्यों फूले फिरते हो ? ये सारी चीज़ें कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाने वाली हैं, वृद्धावस्था आने पर ही व्यक्ति जर्जर होकर दूसरों के आधीन हो जाता है, दिन रात परिवारी जनों की ही प्रताड़ना सहता रहता है। उस समय रूप, बल, बुद्धि इत्यादि सभी समाप्त हो जाते हैं। लेकिन मनुष्य इन सब बातों के विषय में कभी कुछ विचार ही नहीं करता। अरे और तो और सारी चीज़ों के अहंकार का जो आधार है हमारा शरीर वही एक सैकंड में समाप्त हो सकता है। इसीलिए कबीरदास जी ने कहा –
आखिर ये तन खाक मिलेगा, काहे फिरत मगरूरी में,
कहत कबीर सुनो भई साधो, साहिब मिले सबूरी में।
जैसे रुई में अगर आग लग जाय तो वह कितनी देर स्थिर रह सकती है, बस ऐसा ही अस्तित्व इस निरर्थक अभिमान का है –
मैं मैं बड़ी बलाई है, सके निकल तो भाग,
कहे कबीर कब लग रहे, रुई लपेटी आग।
तो आत्मकल्याण के लिए इस सत्यता पर विचार करके हमें अहंकार का त्याग करके दैन्य भाव को धारण करना है। भगवान को केवल दीनता पसंद है –
ईश्वरस्याभिमानद्वेषित्वात् दैन्यप्रियत्वात् च।
(नारद भक्ति सूत्र)
उन्होंने यह मानव शरीर हमें केवल ईश्वर को प्राप्त करने के लिये दिया है इसलिए हमें यह गंभीरता से समझना है –
ईश्वर ने यह तन दिया, करने को दो काम,
तन धन से सेवा करें, मन से सुमरैं राम।
अहंकार करने का शौक ही है तो प्रभु की भक्ति करते हुए केवल यह अहंकार हो कि –
अस अभिमान जाइ जनि भोरे,
मैं सेवक रघुपति पति मोरे ।
(रामचरित मानस)
सदैव यह अभिमान रहे कि वे अनंतकोटि ब्रह्माण्ड नायक भगवान मेरे स्वामी हैं और मैं उनका दास हूँ। केवल ऐसे वंदनीय अभिमान से हमारा कल्याण संभव है बाकी सभी अहंकार पतनकारक हैं।
#सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)