मृत्यु के समय भगवान का नाम कौन ले सकता है ?
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रचारिका सुश्री श्रीधरी दीदी द्वारा विशेष लेख !
प्रायः भोले-भाले लोग अजामिल का उदाहरण देकर कहते हैं कि मृत्यु के समय भगवान का नाम लेने से भगवान का लोक प्राप्त होता है। कई कथावाचकों इत्यादि के द्वारा अजामिल के उद्धार का आख्यान भ्रामक तरीके से लोगों के बीच में प्रचारित किया गया इसीलिये लोगों के मन में ऐसी भ्रांतियाँ उत्पन्न हुईं की सारे जीवन चाहे संसार में हम आसक्त रहें बस मृत्यु के समय भगवान का नाम ले लेंगें तो हमारा कल्याण हो जायेगा।
अस्तु ये बात गंभीरतापूर्वक विचारणीय है कि क्या मृत्यु के समय कोई भगवान का नाम ले सकता है अथवा किसी इंसान का या दानव इत्यादि किसी का भी नाम ले सकता है ? क्योंकि रामायण में तो तुलसीदास जी ने स्पष्ट लिखा –
कोटि कोटि मुनि यतन कराहीं
अंत राम कहि आवत नाहीं ।।
अर्थात् बड़े बड़े योगीन्द्र मुनीन्द्र भी करोड़ों उपाय करके भी हार जाते हैं लेकिन अंत समय में यानि मृत्यु के समय भगवान का नाम नहीं ले पाते फिर अजामिल तो घोर पापात्मा था उसने भगवान का नाम कैसे लिया ?
तो वास्तविकता ये है कि अजामिल ने भगवान का नहीं अपितु अपने सबसे छोटे पुत्र का नाम लिया जिसका नाम ‘नारायण’ था , जिसमें उसकी सबसे अधिक आसक्ति थी और वह भी मृत्यु से पूर्व लिया। इसके पश्चात् उसने विष्णुदूतों और यमदूतों का संवाद सुना और तब उसके हृदय में वैराग्य उत्पन्न हुआ। पूर्वकृत् पापों के प्रति पश्चाताप हुआ, इसके बाद वह विरक्त होकर हरिद्वार गया –
‘ गंगाद्वारमुपेयाय मुक्तसर्वानुबंधनः ‘ ( भागवत )
वहाँ जाकर उसने निरंतर श्री कृष्णभक्ति की । भगवान में मन लगाकर मृत्यु से पूर्व ही भगवत्प्राप्ति की तब भगवान का ध्यान करते हुए , भगवन्नाम लेते हुए उसने ये शरीर छोड़ा। इस प्रकार वह भगवद्धाम में गया। इसी रहस्य को ‘राधा गोविंद गीत’ में अत्यंत सरल शब्दों में स्पष्ट करते हुए श्री महाराज जी कहते हैं –
अजामिल मरा नहिं गोविंद राधे ।
गंगाद्वार जाके मन हरि में लगा दे ।।
भक्ति द्वारा भक्ति मिली गोविंद राधे ।
तब तनु त्यागा गया धाम बता दे ।।
अतएव सिद्धांत यही है कि केवल भगवत्प्राप्त महापुरुष ही मृत्यु के समय भगवान का नाम ले सकते हैं। अन्य संसारी जीव तो मृत्यु के कष्ट को सहन न कर सकने के कारण मृत्यु से पूर्व ही मूर्छा को प्राप्त हो जाते हैं। और मूर्छा के समय ही समस्त इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं। ऐसे
में न तो कोई भगवान का चिंतन कर सकता है ना उनका नाम ले सकता है न संसार का कोई चिंतन या नामोच्चारण हो सकता है।
मूर्छा से कई हजार गुना बड़ा कष्ट मृत्यु का होता है ।
‘जनमत मरत दुसह दुःख होई’ जन्म से भी हजार गुना बड़ा कष्ट मृत्यु का होता है इसलिए यह मायाबद्ध जीव के लिए असह्य होता है, वह मृत्यु से पूर्व ही मूर्छित हो जाता है, समस्त इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं क्योंकि मायाबद्ध जीव से ये शरीर बरबस छुड़वाया जाता है इसीलिए उसे अत्यधिक कष्ट होता है –
मायाबद्ध जीव का तो गोविंद राधे ।
तनु छुड़वाया जाय कष्ट हो बता दे ।। ( राधा गोविंद गीत )
जबकि महापुरुष स्वेच्छा से देहत्याग करते हैं इसीलिए उन्हें मृत्यु का कोई कष्ट नहीं होता –
मायामुक्त हरिभक्त गोविंद राधे ।
तनु त्यागे निज इच्छा ते बता दे ।। ( राधा गोविंद गीत )
इसीलिए वे महापुरुष जो मृत्यु से पूर्व ही भगवत्प्राप्ति कर चुके हैं वे ही मृत्यु के समय भगवान का चिंतन करते हुए अथवा उनका नाम लेते हुए भगवद्धाम में जाते हैं –
मृत्यु पूर्व हरि ते जो गोविंद राधे ।
मिले हरि सुमिरेगा सोई बता दे ।। ( राधा गोविंद गीत )
गीता में भी भगवान श्री कृष्ण ने इसी विज्ञान को स्पष्ट करते हुए कहा –
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिं ।।
अर्थात् भगवान का नाम लेते हुए और उनका स्मरण करते हुए जो तत्काल मृत्यु को प्राप्त होता है वो परम गति को प्राप्त होता है । तो ऐसी तैयारी करने में तो वही समर्थ है जिसे ये पता हो कि मुझे इस क्षण में जाना है और जिसे मृत्यु का कष्ट भी न हो । इसीलिए गीता में कहा गया जो देह छोड़ता है ‘त्यजन्देहं’ अर्थात् स्वेच्छा से शरीर का त्याग करता है। तो छोड़ने और छुड़वाये जाने में बहुत अंतर होता है। यह अंतर उसी प्रकार है जैसे कोई स्वेच्छा से जेल में निरीक्षण हेतु जाय और दूसरा अपराधी को बरबस जेल में ले जाया जाए।
अतएव जो विदेह हो चुके, मृत्यु से पूर्व ही भगवत्प्राप्ति कर चुके हैं वे ही स्वेच्छा से शरीर छोड़ने और भगवत्चिंतन इत्यादि करने में , उनका नाम लेने में समर्थ होते हैं । वे ही ये जानते हैं कि कब मृत्यु को प्राप्त होना है और वे ही मृत्यु के कष्ट से ऊपर खड़े होते हैं। भगवत्प्राप्ति के पश्चात् भगवत्चिंतन तो उन्हें स्वाभाविक रूप से सदा होता ही है, अलग से प्रयत्नपूर्वक करना नहीं पड़ता। और अगर वो न भी करें तो भी वे भगवद्धाम जायेंगे क्योंकि भगवत्प्राप्ति तो वे पूर्व में ही कर चुके ।
ऐसे महापुरुषों के अतिरिक्त कोई ऋषि मुनि योगी हों वे भी मृत्युकाल में भगवन्नाम लेने में समर्थ नहीं हो सकते ।
मृत्यु काल का अर्थ है नाम लेते ही तत्काल प्राण निकल जायें । मृत्यु से पूर्व मूर्छा इत्यादि से पहले लिया हुआ नाम मृत्युकाल में लिया हुआ नाम नहीं कहलायेगा । वह तो मृत्यु से पूर्व लिया हुआ माना जायेगा , ऐसे नाम तो हम जीवनपर्यंत कई बार लेते हैं।
अस्तु , ये सिद्धांत अक्षरशः सत्य है कि मृत्यु के समय भगवन्नाम लेने वाला, उनका चिंतन करने वाला हरिधाम में जाता है –
हरि को सुमिरि मरे गोविंद राधे ।
वाको हरिधाम ही मिलेगा बता दे ।। ( राधा गोविंद गीत )
लेकिन ऐसा करने में केवल महापुरुष ही समर्थ होते हैं ।
अतएव हमें इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि बिना भक्ति के दिन रात संसार में आसक्त रहकर भी हम अंत समय में भगवान का नाम लेकर अथवा उनका चिंतन करके सद्गति को प्राप्त हो जायेंगे । परम गति प्राप्त करने के लिए मृत्यु से पूर्व ही निरंतर भक्ति करके हमें भगवान को प्राप्त करना होगा । इस रहस्य को समझकर हमें अपने एक एक क्षण का सदुपयोग भगवद्भक्ति में ही करना चाहिए।
सुश्री श्रीधरी दीदी प्रचारिका जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज