परदोषदर्शी नहीं स्वदोषदर्शी बनें

March 9, 2025

Shreedhari Didi

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रचारिका सुश्री श्रीधरी दीदी द्वारा विशेष लेख !
हमारा पूरा जीवन कितना खोखला है, हम स्वयं अनंत दोषों के भंडार हैं लेकिन फिर भी हमारा पूरा जीवन दूसरों के दोषदर्शन में यानि उनके अवगुण देखने में, कथन करने इत्यादि में ही व्यतीत हो जाता है। हमें गंभीरतापूर्वक इस विषय में विचार करना चाहिए कि दूसरों के दोष देखने या उनकी निंदा इत्यादि करने में हमारा कोई लाभ नहीं है अपितु हानि ही हानि है। इसलिए ऐसे निरर्थक कार्यों में प्रवृत्त होना समझदारी नहीं बल्कि हमारी नासमझी है। मनुष्य को सदैव कल्याणप्रद कार्यों में ही प्रवृत्त होना चाहिए। परदोषदर्शन घोर कुसंग है जिससे हमारा अंतःकरण और मलिन हो जाता है इसलिए यह सर्वथा त्याज्य है।
संसार में कोई भी समझदार मनुष्य ऐसे काजल का प्रयोग नहीं करता जो उसकी आँख को ही नुकसान पहुँचाए –
वह अंजन कैसा गोविंद राधे,
आँख ही जाते फूटे बता दे। (जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
इसी प्रकार जिस परदोषषदर्शन रूपी कुसंग से हमारी ही निरंतर हानि हो, ऐसे कार्य से सदैव परहेज करना चाहिए अर्थात् बचना चाहिए।  हमारे शास्त्रों में यहाँ तक कहा गया  –
परस्य निंदां पैशुन्यम् धिक्कारं च करोति यः।
तत्कृतं पातकं प्राप्य स्वपुण्यं प्रददाति स: । (पद्म-पुराण)
अर्थात् जो व्यक्ति दूसरे की निंदा चुगली इत्यादि जैसे कार्य करता है तो उसके सारे पुण्य उस व्यक्ति के पास चले जाते हैं जिसकी वह बुराई करता है और उस व्यक्ति के सारे पाप बुराई करने वाले के पास आ जाते हैं। भला इससे अधिक स्वयं की हानि और क्या हो सकती है।
वास्तव में परदोष देखना स्वयं के ही सदोष होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। इसलिए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज स्वरचित ग्रंथ राधा गोविंद-गीत में कहते हैं –
परदोष जो भी देखे गोविंद राधे।
वह है सदोष प्रमाण बता दे।।
क्योंकि यह हम पर निर्भर करता है कि हम क्या देखना चाहते हैं। जिस मनुष्य को सदैव दूसरों के अवगुण देखने में ही आनंद आता है उसने ऐसा ही अपने स्वभाव को बना लिया है, आत्मकल्याण पर उसका ध्यान ही नहीं है। ऐसा मनुष्य फिर सदा सर्वत्र दोष ही दोष देखता है, परदोष चिंतन में ही अपना अमूल्य समय निरर्थक गँवा देता है
दोषदर्शी को तो गोविंद राधे,
सर्वत्र दोष ही दीखे बता दे। (राधा गोविंद गीत)
लेकिन अगर कोई व्यक्ति नेक दिल इंसान है, उदारमना व्यक्ति है तो वह दूसरों के अवगुणों को भी गुणों के रूप में देखता है –
गुणदर्शी को तो गोविंद राधे,
सर्वत्र गुण ही दीखे बता दे। (राधा गोविंद गीत)
इस पतनकारक कुसंग से बचने के लिए सदैव इसकी हानियों पर विचार करना चाहिए। यह दोष मनुष्य के मिथ्याभिमान को बढ़ा देता है, क्योंकि दूसरे में अवगुण देखने से पूर्व स्वयं में गुणवान होने की, दोषरहित होने की भावना उत्पन्न होती है कि अमुक व्यक्ति बुरा है, उसमें यह-यह दोष है लेकिन मैं तो बहुत अच्छा हूँ, मुझमें तो कोई दोष नहीं है। स्वयं में यह दोषराहित्य की भावना ही हमारे अभिमान को निरंतर पुष्ट करती रहती है और यही अहंकार व्यक्ति का पतन कर देता है। वास्तव में दूसरों के दोष चिंतन करते हुए धीरे-धीरे स्वयं की बुद्धि भी दोषमय हो जाती है और उन्हीं सदोष विषयों में मनुष्य की प्रवृत्ति होने लगती है।
परदोष देखो जनि गोविंद राधे ।
यह दोष मन को सदोष बना दे।। ( राधा गोविंद गीत)
फिर त्रिगुण के आधीन होने के कारण जब सारा संसार ही दोषयुक्त है तो आप कहाँ तक दोषचिंतन करेंगे। और सबसे बड़ी बात जब हम स्वयं भी माया के आधीन हैं, त्रिगुण से युक्त हैं, अनंत दोषों की खान हैं तो दूसरे में दोष देखने का हमें अधिकार ही क्या है। और न हम अन्तर्यामी हैं कि किसी भी व्यक्ति के बारे में कोई सही निर्णय दे सकें।
इसीलिए महापुरुषों ने कहा है कि दोष देखने का अगर शौक ही है, स्वभाव ही है तो सदैव अपने दोषों को देखो, स्वदोषदर्शी बनो ताकि तुम्हारा कल्याण हो –
जाने ते छीजहिं कछु पापी
तुलसीदास जी कहते हैं दोष जान लेने पर कुछ-कुछ बचाव हो जाता है क्योंकि वह जीव उनसे बचने का कुछ न कुछ प्रयत्न अवश्य करता है।
सभी शास्त्र कहते हैं प्रत्येक मायाबद्ध मनुष्य अनंत दोषों की खान है, ये दोष पूर्णरूपेण मायानिवृति पर ही समाप्त होते हैं इसलिए हमारे अपने ही दोष क्या कम हैं जो हम दूसरों के दोष देखें –
दोष देखना ही हो तो गोविंद राधे,
अपने अनंत दोष मन को दिखा दे। (राधा गोविंद गीत)
इसीलिए कबीरदास जी ने भी कहा –
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय।
अस्तु! तात्पर्य यही है कि स्वयं के अंदर झाँकने से, अपने दोष टटोलने से ही हमारा सुधार होता है और परदोष दर्शन से पतन होता है इसलिए मनुष्य को ‘परदोषदर्शी नहीं स्वदोषदर्शी’ बनना चाहिए।
सुश्री श्रीधरी दीदी प्रचारिका जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज