गीता जयंती के पावन पर्व पर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रचारिका सुश्री_श्रीधरी दीदी द्वारा बधाई संदेश।

समस्त विश्व समुदाय को गीता जयंती की हार्दिक शुभकामनायेँ।
आनंदकंद सच्चिदानंद श्रीकृष्णचंद्र चरणारविंद मकरंद मिलिंद महानुभाव !
आप सभी को गीता जयंती के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनायें । मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी का दिन श्रीमद्भगवद्गीता जयंती के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है ।
आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी मोक्षदा एकादशी के मंगल प्रभात के समय कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से गीता ज्ञान प्रवाहित हुआ । तभी से यह दिवस भारतवर्ष के ज्वलंत सांस्कृतिक इतिहास का एक सुवर्ण पृष्ठ बनकर रहा है ।


किसी भी धर्म में ऐसा कोई ग्रंथ नहीं है जिसके उद्भव का,जिसकी उत्पत्ति का दिन महोत्सव के रुप में मनाया जाता हो । एकमात्र गीता ही वह ग्रंथ है जिसके आविर्भाव दिवस को जयंती के रुप में मनाया जाता है ।
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के मुखारविंद से नि:सृत इस दिव्य वाणी को वेदव्यास जी ने ग्रंथ का रुप दिया ।
वेदव्यास भगवान के ही अवतार हैं, जिन्होंने सबसे अधिक लेखन कार्य किया है । 18 पुराणों के, महाभारत के, वेदान्त के सबके रचियता वेदव्यास ही हैं । और उन्होंने सबसे पहले गीता का ही प्राकट्य किया । उनका पहला ग्रंथ है गीता।
आज संसार में सबसे अधिक प्रचलित हिन्दू धर्म का यही ग्रंथ गीता है।
लेकिन इतना प्रचार इस ग्रंथ का होने के बाद भी, करोड़ों लोगों के सुनने, पढ़ने के बाद भी कितने अर्जुन बन सके ?
गीता ज्ञान सुनकर अर्जुन, जो अज्ञान युक्त होकर युद्ध के मैदान में हथियार छोड़कर बैठ गया था, उसने कहा –
‘नष्टोमोह: स्मृतिर्लब्धा’
हे श्रीकृष्ण! अब मेरा मोह रूपी अज्ञान नष्ट हो गया है, ज्ञान प्राप्त हो गया है, अब मैं अपने कर्तव्य पथ पर चलने के लिए तैयार हूँ, धर्म युद्ध करने के लिए तैयार हूँ ।
यद्यपि अर्जुन तो अज्ञानी होने का अभिनय मात्र कर रहा था, वह तो गीता ज्ञान प्राप्त होने से पूर्व ही महापुरुष था तभी तो उसने महाभारत के युद्ध में सहायतार्थ केवल निहत्थे श्रीकृष्ण को माँगा, उनकी 18 अक्षौहिणी सेना को नहीं ।
क्योंकि वह जानता था:-
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
अर्थात् जहाँ श्री कृष्ण हैं, वहीं विजय है । और यह बात जानना तभी हो सकता है जब अर्जुन यह समझता है की श्री कृष्ण ब्रह्म हैं, सब इनकी मुट्ठी में है, इनके संकल्प से ही सब कुछ होगा ।
यानि वह श्रीकृष्ण को भगवान जानता था, पूर्व में ही महापुरुष था । लेकिन जीवकल्याण के लिए ही महापुरुष अज्ञान का अभिनय करते हैं, वो अभिनय न करता तो जगत्कल्याण के लिए गीता का प्राकट्य कैसे होता ?
अस्तु ! कहने का तात्पर्य ये है कि ये गीता ज्ञान हमारे कल्याण के लिए, मायाबद्ध जीवों के लिए प्रकट किया गया लेकिन करोड़ों लोग इस ग्रंथ की पूजा करते हैं, गीता जयंती मनाते हैं, दिन-रात पाठ करते हैं, कई लोग प्रवचन भी करते हैं, टीकायें भी लिखते हैं लेकिन कितने अर्जुन बन सके ?
कोई विरला ही अर्जुन बना होगा जिसका अज्ञान चला गया हो ।
बाकी सब तो केवल पाठ इत्यादि करके फिजिकल ड्रिल (physical drill) कर रहे हैं ।
गीता के कर्मयोग की बात तो सभी करते हैं लेकिन कोई विरला ही कर्मयोगी बन पाता है ।
इसलिए हमारे परमपूज्य गुरुवर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं गीता का पाठ मात्र करने से, गीता कंठस्थ करने से, प्रवचन देने अथवा टीकायें लिखने से काम नहीं बनेगा । हमारा परम चरम लक्ष्य तो हमें तभी प्राप्त होगा जब हम गीता के सिद्धांतों को प्रैक्टिकल अपने जीवन में उतारें, उन पर अमल करें ।
और भगवान द्वारा प्रकटित अथवा महापुरुषों द्वारा प्रणीत इन दिव्य ग्रथों का सार हम स्वयं अपनी मायिक बुद्धि से नहीं समझ सकते वो तो केवल वास्तविक गुरु ही हमें समझा सकते हैं ।
अत: तमाम ग्रंथों के अध्ययन में समय नष्ट नहीं करना चाहिए, उनमें पाये जाने वाले अनेकानेक विरोधाभासों से हम और अधिक भ्रमित हो सकते हैं । हमें तो केवल किसी वास्तविक महापुरुष की शरणागति में रहकर समस्त वेदों शास्त्रों का सार समझकर उपासना करनी चाहिए ।
वे अत्यंत संक्षेप में हमें उन ग्रंथों से अमूल्य रत्न निकालकर दे देते हैं । हमारे गुरुवर को ही देखिये इतना संक्षेप में उन्होंने गीता का सार बताया है , इतने सरल शब्दों में कि घोर से घोर मूर्ख भी उसको हृदयंगम कर सके । वे कहते हैं ‘भी’ हटाकर भगवान में ‘ही’ लगा दो तो बस तुम्हारा काम बन जाए इसके अतिरिक्त गीता में और कुछ नहीं है ।
सारी गड़बड़ इस ‘भी’ की है, अनादिकाल से हमने संसार को ‘भी’ अपना माना भगवान को ‘भी’ अपना माना,ये शरणागति नहीं है । भगवान ‘ही’ मेरे हैं, उन्हीं से हमारे समस्त संबंध हैं, वे ही हमारे जीवन सर्वस्व हैं ,ये शरणागति की अवस्था है । ‘शरणागति’ ही गीता का मूलभूत सिद्धांत है –
‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज’ ये श्लोक ही गीता का सार है ।
मन भगवान में ही आसक्त रखकर शरीर से संसार में कर्तव्य पालन करना यही कर्मयोग है, जिसका उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने पूरी गीता में अर्जुन को दिया । यही गीता का सार है ।
श्री महाराज जी ने राधागोविन्द गीत में स्पष्ट किया –
“गीता का सार यही गोविन्द राधे
युद्ध कर्म कर मन हरि में लगा दे ।।”
अस्तु ! कहने का तात्पर्य यही है कि गीता जयन्ती के उपलक्ष्य में गीता ग्रंथ का पूजन अथवा पाठ मात्र करने से या प्रवचन श्रवण मात्र से लक्ष्य प्राप्ति नहीं हो सकती, अपितु सद्गुरु के सान्निध्य में रहकर गीता का सार समझकर भगवान के शरणागत होने का प्रयास करने पर ही धीरे–धीरे पूर्ण शरणागति होने पर हमारा गीता जयन्ती मनाना सार्थक हो सकेगा, जब स्वयं गीता सुनाने वाले यशोदानंदन के दर्शन प्राप्त करके हम सदा सदा के लिए मालामाल हो सकेंगे ।
गीता जयन्ती का ये पावन पर्व श्रीकृष्णचन्द्र चरणारविंद में हमारी प्रीति को ओर प्रगाढ़ करे इसी शुभकामना के साथ:
आपकी दीदी: सुश्री श्रीधरी दीदी प्रचारिका जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

