भक्ति में अनन्यता परमावश्यक है
November 7, 2024
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रचारिका सुश्री श्रीधरी दीदी द्वारा विशेष लेख!
हम सभी अनंतानंत जन्मों से भक्ति करते आए हैं क्योंकि जीव अनादि है इसलिए अनंत बार मानव देह मिला, सद्गुरु मिले, हमने भक्ति भी की लेकिन अनन्यता न होने के कारण हमारी भक्ति कभी परिपक्व नहीं हो पाई, पूर्ण नहीं हो पाई और इसी गड़बड़ी के कारण हम आज भी अपने परम चरम लक्ष्य से वंचित हैं।
अतएव अनन्य भक्ति करने के लिए हमें इसे गहराई से समझना होगा। अनन्य शब्द का अर्थ है ‘न अन्य’ अर्थात् ‘अन्य नहीं, दूसरा नहीं’, हमारे हृदय में केवल हमारे इष्टदेव श्री राधाकृष्ण हों, उन्हीं में हमारे मन का पूर्ण लगाव हो, प्रेम हो उनके अतिरिक्त हमारे मन की आसक्ति और कहीं न हो।
साधक के अंतःकरण में यदि इष्टदेव के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व आ जाता है तो अनन्यता भंग हो जाती है।
हम सभी अनंतानंत जन्मों से भक्ति करते आए हैं क्योंकि जीव अनादि है इसलिए अनंत बार मानव देह मिला, सद्गुरु मिले, हमने भक्ति भी की लेकिन अनन्यता न होने के कारण हमारी भक्ति कभी परिपक्व नहीं हो पाई, पूर्ण नहीं हो पाई और इसी गड़बड़ी के कारण हम आज भी अपने परम चरम लक्ष्य से वंचित हैं।
अतएव अनन्य भक्ति करने के लिए हमें इसे गहराई से समझना होगा। अनन्य शब्द का अर्थ है ‘न अन्य’ अर्थात् ‘अन्य नहीं, दूसरा नहीं’, हमारे हृदय में केवल हमारे इष्टदेव श्री राधाकृष्ण हों, उन्हीं में हमारे मन का पूर्ण लगाव हो, प्रेम हो उनके अतिरिक्त हमारे मन की आसक्ति और कहीं न हो।
साधक के अंतःकरण में यदि इष्टदेव के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व आ जाता है तो अनन्यता भंग हो जाती है।
भगवान ने सर्वत्र इस अनन्य शब्द का प्रयोग जोर देकर किया है कि मेरी अनन्य भक्ति से ही जीव मुझ तक पहुँच सकता है –
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। (गीता : 9-22)
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। (गीता : 9-22)
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास (रामचरित मानस)
अर्थात् समस्त बलों का आश्रय त्यागकर जब जीव केवल भगवान का ही बल अपने हृदय में रखता है यही अनन्यता का स्वरूप है। इसी परिभाषा को स्पष्ट करते हुए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ‘राधा गोविंद गीत’ में कहते हैं –
अन्य आश्रयों का गोविंद राधे,
मन ते त्याग अनन्यता बता दे।
संसार में कोई अपने धन के बल पर अकड़ता है, कोई रूप के बल पर तो कोई योग, जप, तप इत्यादि साधनाओं के बल पर इतराता है, अभिमान करता है। ये सभी बल अनन्यता में बाधक हैं, त्याज्य हैं, यहाँ तक कि स्वबल आश्रय यानि अपने बल का गुमान करना भी वर्जित है। केवल अपने इष्टदेव का ही बल साधक के हृदय में होना चाहिए, उन्हीं की कृपा का, करुणा का दृढ़ विश्वास हृदय में होना चाहिए, यही अनन्यता है –
अन्य आश्रयों का गोविंद राधे,
मन ते त्याग अनन्यता बता दे।
संसार में कोई अपने धन के बल पर अकड़ता है, कोई रूप के बल पर तो कोई योग, जप, तप इत्यादि साधनाओं के बल पर इतराता है, अभिमान करता है। ये सभी बल अनन्यता में बाधक हैं, त्याज्य हैं, यहाँ तक कि स्वबल आश्रय यानि अपने बल का गुमान करना भी वर्जित है। केवल अपने इष्टदेव का ही बल साधक के हृदय में होना चाहिए, उन्हीं की कृपा का, करुणा का दृढ़ विश्वास हृदय में होना चाहिए, यही अनन्यता है –
इष्टबल आश्रय गोविंद राधे,
एकमात्र हो तो अनन्य बता दे। (राधा गोविंद गीत)
एकमात्र हो तो अनन्य बता दे। (राधा गोविंद गीत)
और इष्टदेव केवल भगवान ही हैं, हमें केवल उन्हीं से प्रेम करना है। उनके अतिरिक्त किसी देवता, मनुष्य, राक्षस इत्यादि में या किसी भी जड़ वस्तु में हमारे मन का लगाव नहीं होना चाहिए।
इष्टदेव भगवान गोविंद राधे,
उनकी ही भक्ति करो शेष को भुला दे। (राधा गोविंद गीत)
उनकी ही भक्ति करो शेष को भुला दे। (राधा गोविंद गीत)
और इष्टदेव का ही दूसरा रूप है गुरु। अतएव इष्टदेव, गुरु एवं गुरु निर्दिष्ट भक्ति मार्ग के प्रति अनन्य रहना है –
भक्ति भक्त भगवान गोविंद राधे,
तीनों में अनन्य भाव रखना है बता दे। (राधा गोविंद गीत)
तीनों में अनन्य भाव रखना है बता दे। (राधा गोविंद गीत)
हरि गुरु के अतिरिक्त स्वर्ग के देवी देवता इत्यादि भी मायिक हैं, आनंद के भिखारी हैं अतएव उनकी भक्ति से हमें लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा।
भगवान का यह अकाट्य कानून है कि जहाँ हमारे मन का लगाव होगा मृत्यु के उपरान्त उसी की प्राप्ति होती है –
भगवान का यह अकाट्य कानून है कि जहाँ हमारे मन का लगाव होगा मृत्यु के उपरान्त उसी की प्राप्ति होती है –
यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। (गीता : 9-25)
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। (गीता : 9-25)
अतएव भगवान के अतिरिक्त मायिक जगत में कहीं भी मन की आसक्ति होने से मायिक लोकों की ही प्राप्ति होगी। इसलिए उपासना केवल असीम दिव्य भगवान एवं गुरु की ही करनी चाहिए लेकिन अन्यत्र कहीं भी दुर्भावना न हो, अन्य में आदरभाव रखकर उदासीन रहना चाहिए जैसे एक पतिपरायणा स्त्री अपने पति में एकानुराग रखती है किन्तु अपने अन्य देवर, ज्येष्ठ, सास, ससुर, नौकर आदि के प्रति आदर की बुद्धि रखती है –
मन ते सबका ही गोविंद राधे,
करो सम्मान प्रेम हरि ते बता दे। (राधा गोविंद गीत)
करो सम्मान प्रेम हरि ते बता दे। (राधा गोविंद गीत)
भगवान ही समस्त वेदों के, समस्त धर्मों के मूल हैं अतएव उनकी भक्ति से चराचर विश्व तृप्त हो जाता है। और श्रीराधाकृष्ण समस्त अवतारों के अवतारी हैं अतएव सर्वोच्च रस की प्राप्ति के लिए श्रीराधाकृष्ण की ही अनन्य भक्ति जीवों को करनी चाहिए। यदि पूर्व में कोई अन्य इष्टदेव भी हों तो उनको श्रीराधाकृष्ण में ही प्रतिष्ठित कर देने से औपाधिक संकोच भी समाप्त हो जाता है क्योंकि भगवान, उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, संत सभी एक होते हैं।
सुश्री श्रीधरी दीदी प्रचारिका जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज