संसार मृगतृष्णा के समान है
आनंद–ब्रह्म का अंश होने के कारण प्रत्येक जीव अनादिकाल से एकमात्र आनंद ही प्राप्त करना चाहता है। यही जीव का परम चरम लक्ष्य है –
सुखाय कर्माणि करोति लोको न तै: सुखं वान्यदुपारमं वा।
विंदेत भूयस्ततएव दुःखं यदत्र युक्तं भगवान्वदेन्न:
(भागवत : 3-5-2)
भागवत के उपर्युक्त श्लोक में महात्मा विदुर कहते हैं कि संसार में सभी लोग सुख के लिए ही कर्म करते हैं। लेकिन फिर भी न तो उन्हें कोई सुख ही मिलता है और न उनका दुःख ही दूर होता है।
कैसी विडम्बना है? अनादिकाल से विश्व का प्रत्येक जीव आनंदप्राप्ति हेतु ही प्रत्येक क्षण प्रयत्नशील है, कर्म कर रहा है लेकिन फिर भी आनंद का लवलेश भी प्राप्त नहीं कर सका। आज भी वह दुःखी है और निरंतर आनंद की खोज में है।
हाँ, यही परम सत्य है और इसका एकमात्र कारण यह है कि यह खोज गलत दिशा में हो रही है। हम निरंतर संसार में आनंद पाने का प्रयास कर रहे हैं जबकि यह संसार तो एक मृगतृष्णा के समान है, मृगमरीचिका है। यहाँ पर वास्तविक आनंद का लवलेश भी नहीं है। इसलिये यहाँ आनंद खोजने से तो आनंद की प्यास और बढ़ती ही जाएगी।
जैसे मरुस्थल में भटकता हुआ प्यासा हिरण भ्रांति के कारण धूप में चमकते हुए रेत के टीलों को ही पानी का स्रोत समझकर निरंतर दौड़ता रहता है और अंततः मर जाता है, इसी प्रकार इस दुःखमय संसार में बारम्बार सुख की कल्पना करता हुआ मनुष्य भी एक दिन काल का ग्रास बन जाता है लेकिन अंत तक सुख प्राप्त नहीं कर पाता। वह निरंतर नई–नई कामनाएँ बनाकर सुखी होने का स्वप्न संजोता है लेकिन निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि कामना पूर्ति होने पर उसका ये भ्रम भी चला जाता है कि इसमें सुख है। पुनः नई कामनाओं द्वारा सुखी होने की प्यास बनी रहती है।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज स्वरचित संकीर्तन की पंक्तियों में इसके कारण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं –
जग जल में न घी मना,
श्रम ही है याको मथना।
अरे मनुष्यों! जैसे पानी को मथने से कभी घी नहीं निकल सकता, उसी प्रकार जगत में आनंद की खोज करना सर्वथा निरर्थक है और इसका परिणाम केवल परिश्रम ही है। इससे लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा क्योंकि जगत में कहीं वास्तविक आनंद है ही नहीं। हम जो शाश्वत आनंद, नित्य आनंद, परमानंद प्राप्त करना चाहते हैं वह तो भगवान का ही दूसरा नाम है।
आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात् (तैत्तिरीयोपनिषद्)
आनंद ही भगवान है, भगवान ही आनंद है। ये दोनों शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।
साँचो सुख जग न मना, सुखघन राधारमना।
जग सुख क्षणिक मना, हरि सुख भूमा अपना।
श्री महाराज जी कहते हैं जगत का सुख तो अनित्य है, क्षणिक है, भ्रांति मात्र है। हम जिस भूमा सुख (अनंत मात्रा का, अनंत काल के लिए, प्रतिक्षण वर्द्धमान) को पाना चाहते हैं वह केवल भगवान को प्राप्त करके ही प्राप्त हो सकता है क्योंकि उन्हीं का दूसरा नाम आनंद है। इसलिए हमें अपने मन को बारम्बार यही समझाना है –
छाँडु मन! जग मृगजल की आस।
मृगजल पियत अमित युग बीते, तऊ बुझी नहिं प्यास।
अर्थात् ऐ मन! सांसारिक विषय–रस रूपी मृग–जल को पीते हुए तुझे अनंत युग बीत गए फिर भी तेरी प्यास नहीं बुझ सकी, अतएव अब इसकी आशा छोड़ दे।
अस्तु तात्पर्य यही है कि आनंदसिन्धु भगवान को प्राप्त किये बिना और किसी भी उपाय से जीव शाश्वत आनंद प्राप्त नहीं कर सकता।
#सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)