सबसे बड़ा मूर्ख कौन है ?

January 22, 2025

Shreedhari Didi

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की प्रचारिका सुश्री श्रीधरी दीदी द्वारा विशेष लेख !
कितनी विचित्र बात है ! कि इस संसार में हर व्यक्ति सदा स्वयं को सबसे समझदार और दूसरे को मूर्ख मानता है और यही सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील भी रहता है जबकि वास्तविकता ये है कि हम सभी मूर्ख हैं । प्रत्येक मायाबद्ध मनुष्य जो स्वयं को देह मानता है, शरीर को ही ‘मैं’ मानता है वो ही सबसे बड़ा मूर्ख है और ऐसे हम सभी हैं ।
उद्धव ने जब भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि सबसे बड़ा मूर्ख कौन है ? तो उन्होंने कालिदास नहीं कहा, श्री कृष्ण ने उत्तर दिया –
मूर्खो देहाद्यहं बुद्धि : (भागवत)
सबसे बड़ा मूर्ख वो है जो देखते, सुनते, जानते हुए भी कि हमारे अंदर कोई है जिसके कारण हम चल रहे हैं, फिर रहे हैं, देख रहे हैं , सुन रहे हैं, सूँघ रहे हैं , स्पर्श कर रहे हैं, जान रहे हैं वो चला गया तो कुछ नहीं कर सकते फिर भी अपने को देह मानता है ।
तो जैसे संसार में हम ऐसे व्यक्ति को पागल कहते हैं , मूर्ख कहते हैं जो न अपना नाम जानता है, न अपने माता पिता को जानता है , न अपना घर जानता है ठीक यही अवस्था हमारी भी है । हम न अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित हैं , न वास्तविक माता पिता को जानते हैं , न वास्तविक घर के विषय में कुछ जानते हैं । इसलिए हम सभी पराकाष्ठा के मूर्ख हैं। वेद में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया –
‘ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तृ भोग्यार्थ युक्ता’
अर्थात् ईश्वर ज्ञ है यानि वो सबकुछ जानता है , सर्वज्ञ है और जीव अज्ञ है यानि मूर्ख है , ज्ञानरहित है जो कुछ नहीं जानता । अज्ञानी है , उसके ऊपर अनादिकाल से अज्ञान का अधिकार है । अज्ञान की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए हमारे परम पूज्य गुरुवर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं –
अज्ञान परिभाषा गोविंद राधे ।
आत्मा को देह मान लेना बता दे ।।
अर्थात् अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाना, आत्मा को देह मान लेना ही सबसे बड़ा अज्ञान है । हमारा वास्तविक स्वरूप वेदों, शास्त्रों, संतों सभी के द्वारा प्रकट किया गया कि तुम देह नहीं हो , आत्मा हो । और आत्मा भगवान की अंश है, नित्य है, दिव्य है, चेतन है, अविकारी है, सुखराशि है –
चिन्मात्रं श्रीहरेरंशं सूक्ष्ममक्षरमव्ययं
कृष्णाधीनमितिप्राहुर्जीवं ज्ञानगुणाश्रयम ।। (वेद)
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन:। (गीता)
ईश्वर अंश जीव अविनाशी , चेतन अमल सहज सुखराशी (रामायण)
यही हमारा वास्तविक स्वरूप है। जबकि ये देह तो परिवर्तनशील है, हर जन्म में जीवात्मा को नया देह प्राप्त होता है । हमारा ये शरीर नश्वर है। शरीर का अर्थ ही होता है –
‘शीर्यते इति शरीरं’
अर्थात् जो प्रतिक्षण क्षय को यानि नाश को प्राप्त हो । ये शरीर हमारा है , हम शरीर नहीं हैं । जहाँ हमारा लगे वो हम नहीं हो सकता । लेकिन हमने अनादिकाल से आत्मस्वरूप को भुलाकर स्वयं को सदा देह माना, इस नश्वर, विकारी शरीर को ही ‘ मैं ‘ माना इसीलिए इसी देह के मायिक सुखों को प्राप्त करने का प्रयास किया और संसारासक्ति के परिणामस्वरूप 84 लाख योनियों में भ्रमण करते हुए निरंतर दुःख प्राप्त कर रहे हैं ।
जबकि हम केवल आत्मा का आनंद चाहते हैं जो आनंदसिन्धु भगवान को प्राप्त करके ही हमें मिल सकता है क्योंकि आत्मा भगवान का अंश है , अंश होने के कारण हम भगवान के नित्य दास हैं –
जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास (गौरांग महाप्रभु)
यही हमारा वास्तविक स्वरूप है । इसी को ‘प्रेम रस मदिरा’ में स्पष्ट करते हुए श्री महाराज जी ने भी कहा –
मूढ़ मन ! गूढ़ तत्त्व यह जान ।
चिदानन्दमय ईश्वर जाको, किंकर जीव बखान ।
देही जीवहिं देह मान बस, यह अनादि अज्ञान ।।
अर्थात् ऐ मूर्ख मन ! बस इसी एक गूढ़ तत्त्व को अगर तू जान ले की तू चिदानन्दमय भगवान का नित्य दास है तो तेरी अनादिकालीन बिगड़ी बात बन जाये । वो ही तेरे वास्तविक पिता हैं , तेरे जीवन सर्वस्व हैं ।उनको प्राप्त करके उनके नित्य धाम में जाकर ही तू सदा सदा के लिए कृतार्थ हो सकेगा । अनादिकालीन अज्ञानवश आत्मा को देह मानने के कारण ही तू उनसे वंचित है।
अस्तु, स्वयं को देह मानने के कारण ही हम अनादिकाल से दैहिक दुःखों के पीछे भागकर वास्तविक आनंद से और दूर होते जा रहे हैं यही हमारी सबसे बड़ी मूर्खता है इसीलिए हम सबसे बड़े मूर्ख हैं । मूर्ख की इसी परिभाषा को ‘ राधा गोविंद गीत ‘ में स्पष्ट करते हुए श्री महाराज जी कहते हैं –
मूर्ख की परिभाषा गोविंद राधे ।
इंद्रियों का ही सुख लक्ष्य बता दे ।।
इसलिए हम ही सबसे बड़े मूर्ख हैं इस सत्य को स्वीकार करके , सद्गुरु शरणागति द्वारा इस अज्ञान को दूर करने का, आत्मस्वरूप को पहचानकर स्वयं को आत्मा मानकर अपने परम चरम लक्ष्य की प्राप्ति का ही निरंतर प्रयत्न करना चाहिए। तभी हम एक दिन उन्हें प्राप्त करके ज्ञानी बन सकते हैं अन्यथा इसी प्रकार सदा मूर्खाधिपति बनकर इस भवाटवी में भटकते रहेंगें।
सुश्री श्रीधरी दीदी प्रचारिका जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज